क्या तेरा जाना जरुरी था

                  क्या तेरा जाना जरुरी था 


बचपन तू मुझे अकेला कर गया,क्या तेरा जाना जरुरी था।

यदि हाँ तो साथ ले चलता,क्या मुझे पीछे छोड़ना जरुरी था।


तू तो दोस्त था ना मेरा, तुझे याद नहीं रहा मैं।

हकिकत में ही रूठकर चला गया,क्या तेरा इस तरह रूठना जरुरी था।


मैनें बताया था ना तुझे,कि मेरा एकतरफा प्यार है।

फिर भी बेवफ़ा कह गया मुझे,ऐसा कहना क्या तेरे लिये जरुरी था।


तू तो बड़ा दयालु था ना,इतना पत्थर दिल कैसे हो गया।

मेरे इश्क का चाव नही रहा तुझे,क्या मुझे तड़पाना जरुरी था।


और हाँ ये जिम्मेदारियाँ,ये नौकरियाँ,सभी मैं ही करूँगा 

कुछ तू नहीं कर सकता,क्या तेरा इनसे बचना जरुरी था।






तेरे आने के बाद/ जेआर बिश्नोई

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                तेरे  आने के बाद       


©️copyright : जेआर बिश्नोई  ,bloomkosh के पास संकलन  की अनुमति है।इस रचना का प्रयोग जेआर बिश्नोई    की अनुमति बिना कही नही किया जा सकता है।


शीर्षक - तेरे आने के बाद 



तेरे आने के बाद 

हे नारी! तू ही जगत जीव संसार
अद्भूत तेरी रचना,जिसका नहीं है कोई पार

तेरे आने से पहले,सुना पड़ा जो मकान 
बन गया घर जो ,आज बसते जिसमें खुद भगवान

आनन्द का पार नहीं, खुशियों का भरा भंडार 
अकेला था जो, आज कहलाता पूरा परिवार

कलियाँ फूटी उन शाखाओं पर,जो पड़ी थी कब से वीरान
फ़ूल खिले,खुशबू महकी, मुस्कराए बागवान 

यह सब कुछ हुआ,हे नारी !तेरे आने के बाद 
तू है तो यह जगत है ,नहीं तो सब कुछ बर्बाद।

कविता



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उड़ना बाकी है/ जेआर बिश्नोई

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            उड़ना बाकी है              


©️copyright : जेआर बिश्नोई  ,bloomkosh के पास संकलन की अनुमति है ।इस रचना का प्रयोग  जेआर'बिश्नोई '  की अनुमति बिना कही नही किया जा सकता है।


शीर्षक - उड़ना बाकी है



             उड़ना बाकी है


खाली मत बैठ यूँ,अभी तेरा इम्तिहान बाकी है।

पँछी उड़ आकाश में,अभी तेरी उड़ान बाकी है।


सोने से पहले सोच तू,तेरे कुछ काम बाकी है।

उठा तिनका अभी,तेरे नीड़ का मुकाम बाकी है।


घोंसला तेरा मुकाम नही,बाज बन उड़ना बाकी है।

तेरे पंखो से असीम नभ को अभी नापना बाकी है।


चहकना ही जिन्दगी नही,महकना अभी बाकी है।

उठा कलम कुछ लिख,खिताब नही इतिहास बाकी है।


'जसु'नसीब पीछे तू आगे,तेरा अभी चलना बाकी है।

थक बैठना तेरा काम नहीं,गिरकर सम्भलना बाकी है।




कविता/ उड़ना बाकी है



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अकेलापन

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                अकेलापन             


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शीर्षक - अकेलापन 



                  


जब  अकेले  आये  दुनिया में, 
तो अकेले क्यों नहीं रह सकतेl
जब  अकेले जाना  दुनिया से,
तो खुश क्यों नहीं रह सकतेll
  जानती   हूँ    मैं, 
बहुत  बातें  बतानी  हैl
पर कोई शख्स ही नहीं है, 
जिन्हें ये बातें सुनानी है।। 
क्यों चाहते एक शख्स, 
जो तुमको जरा समझे।
खुद ही में है वो शख्स, 
जो तुमको सदा समझे।। 
तो खुद मैं खोजो उसको, 
मिलकर  सुकून पाओगे।
पर अगर बाहर खोजा तो, 
सिर्फ   दर्द   पाओगे।। 
अब मर्जी तुम्हारी है, 
क्या चाहते हो तुम। 
अकेले रहना चाहते हो, 
या दर्द सहना चाहते हो।। 
     मानती    हूँ    मैं, 
 बहुत कठिनाई आयेगी। 
 पर  उस दर्द से बेहतर, 
तो वो  कठिनाई  भायेगी।




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जिंदगी

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                  जिंदगी                  


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शीर्षक - जिंदगी 


Poem-4
                            ज़िंदगी
जिंदगी   का   सफर, 
भरा है  पूरा काटों से। 
हँसकर तुम चलोगे तो, 
ये काटें भी है फूल से।। 
रोने   से  मिलेगा  क्या, 
दर्द  खुद को  दोगे तुम। 
जरा मुस्कुरा के देखो तो, 
कितने चेहरे खिलेगे तब।। 
मुश्किलों   का   दौर  है, 
तुम  धैर्य  रखो  गुजरेगा। 
जब नया सवेरा आयेगा, 
तो ये वक्त भी  सुधरेगा।। 

। 




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यह छोटा सा जीवन

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            यह छोटा सा जीवन    


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शीर्षक - यह छोटा सा जीवन


Poem-3

यह छोटा सा जीवन

कभी    हँसायेगा, 
तो कभी  रूलायेगा। 
पर  तू डरना मत मेरे दोस्त,
यह बस इम्तिहान लेकर जायेगा।। 
                     यह छोटा सा...... 
जीवन में अगर मुश्किलें आयेगी, 
तो बहुत कुछ सिखा कर जायेगी। 
तू बस हिम्मत से काम लेना मेरे दोस्त, 
तो ये सारी मुश्किलें भी हल हो जायेगी।। 
                    यह छोटा सा.......... 
इस  छोटे  से  जीवन  में, 
यादों  का  बड़ा  पिटारा  होगा। 
तू बस हर लम्हे को खुल के जीना मेरे दोस्त, 
ये  जीवन  न  दुबारा  होगा।। 
                   यह छोटा सा........... 





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किस्मत

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                किस्मत                


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शीर्षक - किस्मत


Poem-2
                किस्मत
क्यों कोसते हो किस्मत को अपनी, 
जरा  निकलकर  देखो  तो  बाहर। 
जो  मिला  है  तुमको  बिन  मागें, 
उसके लिए तरस रहे लोग हजार।। 
तो कोसना बन्द करो किस्मत को, 
और शुकिया करो अब उस रब को। 
जिसने  बख्शा  ये   सब  तुम  को, 
कोटि-कोटि नमन करो अब उसको।। 






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सपना

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                सपना                     


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शीर्षक - सपना


Poem-1                        
        सपना
करता जा तू कोशिश बन्दे, 
रब    तो    तेरे   साथ   है। 
डरता क्यों है  मुश्किलों से, 
ये   तो  मात्र   पड़ाव   है।। 
पड़ाव तो ऐसे बहुत आयेगे, 
तो   क्या   डरकर   बैठेगा। 
और देखा था जो सपना तू ने, 
तो   क्या   उसको   तोड़ेगा।। 
तोड़ना नहीं है सपना तुझको, 
बल्कि  उसको  तो  पाना  है।
उसके बाद जो खुशी मिलेगी, 
उसमें  ही  तो   खजाना  है।। 
माता- पिता के चेहरे पर फिर, 
प्यारी   सी   मुस्कान    होगी। 
गर्व   से   सीना   चौड़ा  होगा, 
उसमें तेरी भी तो शान होगी।। 
तो  लग  जा   फिर  तू   अपने, 
उस   सपने   को  पूरा   करने। 
और लगा दे अपनी पूरी मेहनत, 
फिर उस सपने को पूरा कर दे।। 





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मेरा परिवार

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              मेरा परिवार            


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शीर्षक - मेरा परिवार

कविता 5
विषय:-मेरा परिवार

त्याग, समर्पण के आधार से जहाँ एक दुसरे के दिल में प्यार 
खुशियों की बुनियाद है, मुस्कुराने की वजह हैं परिवार

एक दुसरें की भावनाओं की कद्र अपनापन बेशुमार
विश्वास हो मन में जहाँ खडी न होती गलतफ़हमी की दिवार

बडे बुजूर्गो की इज़्जत, छोट़ों से अशिष होता अतिथी सत्कार
अपनी संस्कृती, सभ्यता विरासत, रहते सदैव संस्कार

थोडी होती नोक़झोक पर स्नेह और प्रेम से सुलझती हर तकरार
परिवार संग हर क्षण लगता जैसे कोई तीज़-त्योहार

सुख दुःख बांट़ते मुश्किल वक्त में मजबूती से झेलते हर प्रहार
एकजूट़ का सुरक्षा कवच हमारा कोई शत्रू ना करता वार

एकता शक्ति सबकी, एक दुसरें की मिलकर खुशी से सज़ता संसार
सुखी परिवार में ही लक्ष्मी, सरस्वती सदैव रहती घर द्वार

रश्मी कौलवार




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स्वार्थ से परमार्थ तक का सफर

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शीर्षक - स्वार्थ से परमार्थ तक का सफर


कविता 4
विषय:- स्वार्थ से परमार्थ तक का सफर

हर मनुष्य के लिए आसान नही हैं, ये स्वार्थ से परमार्थ तक का सफर।
जन्म से ही स्वयं के बारे में सोचने की, आदत लगी हैं उसे इस कदर।

पहले अपना विचार करके ही, फिर वो परोपकार करता सोच समझकर।
मनुष्य जीता होकर स्वार्थी माया, मोह, ममता, आशा की पट्टी बांधकर।

परमार्थ शूरु होता, जब वो जीता दुसरों के लिए मोह, माया को त्याग कर।
अंतशक्ती जलाता काम, क्रोध, लोभ, मोह की तृष्णा को भस्म कर।

परमार्थ में प्रभू भक्ति, विवेक की ज्योती से जब जीता विरक्त होकर।
अपना अभिमान त्यागकर, कर्म भी करता सारे फल की आशा छोड़कर।

इंद्रियों को वश में करके, जब एकचित्त से प्रभू का ध्यान, चिंतन कर।
दर्शन देते प्रभू एक ना एक दिन उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर।

रश्मी कौलवार 
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सीख

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                सीख                      


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शीर्षक - सीख

कविता 3
विषय:-सीख

जिंदगी की पाठशालामें हमें रोज कोई न कोई सीख दे जाता है।
अपने अनुभव, ज्ञान, शिक्षा से हमे  समृद्ध कर जाता है।
माता पिता, परिवार हमे जीने के तरीके सीखाते है।
जीवन पथ पर सही दिशा में चलना सीखाते है।

गुरु हमे अक्षर ज्ञान देकर जीवनपथ पर प्रगती करना सीखाते है।
दोस्त तो जिंदगी के हर रंग में रंगना सीखाते है।
मनुष्य ही नहीं पशु, पक्षी, सृष्टी भी हमे सीख देती हैं।
जीवन का सारा सार हमे अपने आचरण से समझाते हैं।

चींटी कभी हार नहीं मानती, बार बार गिरकर उठ़ जाती हैं।
आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास का पाठ़ सीखाती है।
रंगबिरंगी तितली अपने धून में मस्त होकर मधुर रस का पान करती हैं।
अच्छे गुणों का आकलन, सदैव खुश रहना सीखाती है।

बगुला एकाग्रता से शिकार कर धैर्य, संयम का पाठ़ पढ़ाता हैं।
बाज़ जैसी तेज़ नजर रखोंगे तो, लक्ष्य जरूर प्राप्त होता हैं।
नदी, पर्वत, वृक्ष, निस्वार्थ भाव से सेवा देकर, परोपकार की सीख देते है।
ये चाँद सुरज हमे सही वक्तपर, कड़ी मेहनत करने की सीख देते है।

हर कोई किसीं न किसीं रूप में, कही ना कही हमे सीख देता है।
जीनसे हमें जीवन का सच्चा मोल समझ में आता हैं।
 
रश्मी कौलवार
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सुख और आनंद में सूक्ष्म अंतर

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शीर्षक - सुख और आनंद में सूक्ष्म अंतर


कविता 2
विषय:- सुख और आनंद में सूक्ष्म अंतर

समझ ले बंदे, सुख और आनंद में बड़ा सूक्ष्म हैं अंतर।
गलतफ़हमी इंसान की इस्तेमाल करता पर्याय समझकर।

सुख हमेशा किसीं व्यक्ती या वस्तू पे होता निर्भर।
आनंद तो हमारी प्रकृती झाँक ले जरा मन के भीतर।

आनंद में सुखानुभूती होती, पर सुख में नहीं मिलता आनंद।
आनंद का संबंध आत्मा से, सुख का संबंध शरीर के अंदर।

मनुष्य का आनंद अक्षय, अनंतकाली, शाश्वत। 
पर मनुष्य का हर सुख अल्पकाली, अस्थायी, क्षणिक।

आनंद से और आनंद हैं मिलता, सुख के बाद दुख आता अक्सर।
आनंद और सुख बांट़कर, स्वर्ग का अनुभव मिलता इसी धरापर।

"सत्, चित्, आनंद" स्वरूप हैं तेरा, देख जरा ज्ञान चक्षू खोलकर।
मत दौड़ क्षणिक सुख के पिछे, आनंद तो तेरे हृदय के भीतर।

रश्मी कौलवार
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बेटियाँ पराया धन

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शीर्षक - बेटियाँ पराया धन



 कविता 1
विषय:- बेटियाँ पराया धन
भगवान की असीम कृपा का फल।
जीस घर में पड़ते लक्ष्मी के कदम।
फिर क्यों कहें बेटियाँ पराया धन?

सौभाग्य माँ बाप का जहाँ लेती बेटी जनम।
जरूर पिछले जनम के कोई पुण्य करम।
फिर क्यों कहें बेटियाँ पराया धन?

परिवार के दुख से उद्विग्न होता जीसका मन।
अपनी खुशबू से महकाती बाबूल का आंगण।
फिर क्यों कहें बेटियाँ पराया धन?

पिता कन्यादान करके पाता है उत्तम फल।
बेटी ही जोडती दोनो घर के बीच कुलसंबंध।
फिर क्यों कहें बेटियाँ पराया धन?

विदा करके पिता अपना फ़र्ज निभाता।
बेटी दुसरा घर सजाकर कर्ज चुकाती।
फिर क्यों कहें बेटियाँ पराया धन?

रश्मी कौलवार.
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जिंदगी औरत की

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            जिंदगी औरत की         


©️copyright :   ritu vemuri ,bloomkosh के की अनुमति है।इस रचना का प्रयोग    की अनुमति बिना कही नही किया जा सकता है।


शीर्षक - जिंदगी औरत की


शीर्षक : जिंदगी औरत की
विधा।  :     कविता

जिंदगी औरत की जैसे तूफानों में फँसी किश्ती 
पहले जन्म के लिए संघर्ष फिर अस्तित्व की जंग लड़ती 

दूसरे घर जाना,बचपन से एक ही घुट्टी पी बड़ी होती 
दूसरे घर में भी पराई रहती लोलक सी झूलती रहती

सबकी सुनती-सोचती उसकी सुनने वाला कोई नहीं 
माँ-बीबी-बेटी-बहू हैं नाम,अपनी पहचान कुछ नहीं 

चाँद के सोने के बाद सोती,सूरज के उठने से पहले जगती
कभी ज़रा वो देर तक सो जाए पूरे घर में अफरातफरी मचती 

औरत की  जिंदगी की खलनायक इक औरत होती
 अपनी बेटी के लिए हाय तौबा बहू के लिए गड्ढे खोदती  

कामकाजी महिलाओं की जिंदगी तो दोधारी तलवार समान
काम करके जाती आते काम में जुटती रस्ते से भाजी खरीदती आती

बच्चों की पढ़ाई-ट्यूशन की पूरी जिम्मेदारी उसपर होती 
चूक करें बच्चें पर जवाबदारी औरत की होती 

 जिंदगी औरत की हमेशा ही  डर-हवस के साए में रहती
बाहर भेड़िए घूम ही रहे अपनों में भी रंगे सियार कम नहीं

जिंदगी औरत की आजकल समाचार की सुर्खियाँ बन गईं
 जिंदगी रही कहाँ मौत के साए में साँस लेने को विवश हो गई

Writer : Ritu Vemuri




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कागजी एहसास

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                कागजी अहसास        


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शीर्षक - कागजी एहसास

शीर्षक: कागजी एहसास

यहांँ  चेहरा  ही  असली  नहीं मुखौटा  है
एहसासों  की  बात  ना करें एक धोखा है

झूठी  मुस्कानों  के पीछे  दर्द के   सैलाब
झूठी मोहब्बत के पीछे हवस के नकाब

एहसास अंदर ही अंदर घुट कर मर रहे हैं
सुनने वाले शेरों की तारीफ  भी कर रहें हैं 

दिल में झाँकने वाला कोई तो मसीहा मिलता 
रौशनी के शहर में कोई असली दिया मिलता 

कागज़ों पर हो रहे जिंदगी के अहम फैसले 
एहसासों को कर रूसवा हो रहे आबरू पर हमले

By: Ritu Vemuri





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चारदीवारी के अंदर

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         चारदीवारी के अंदर         


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शीर्षक - चारदीवारी के अंदर


शीर्षक : चारदीवारी के अंदर
विधा : कविता

चारदीवारी में सुरक्षा अपनों का अपनापन है 
सुख-दुख बाँटते मिलकर,अपना वृंदावन है  

सुख-चैन  है  इसमे  इसी  में चारों धाम हैं 
सारी दुनिया घूम लो इसके जैसा न  स्थान है

माँ-बाप की दुआ इसमें भाई बहन का दुलार
दुनिया की भूखी नज़रों से बचने का सहार है

इसकी दहलीज जो लाँघी सच से सामना होगा
दुनिया की बेशर्मी,बेरहमी से जूझना होगा

जब तक रहें घर की बातें चारदीवारी के अंदर
तब तक पाए मान वो घर, एकता की मिसाल है 

हर आँख का सपना चारदीवारी और इक छत
रूखा-सूखा खाकर भी मिलता यहांँ अमृत है 

Writer : Ritu Vemuri




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बंधनों में जकड़ी हुई

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         बंधनों में जकड़ी हुई         


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शीर्षक - बंधनों में जकड़ी हुई


शीर्षक: बंधनों में जकड़ी हुई
विधा   : कविता

बंधनों में जकड़ी हुई सिसकती हैं नारी की सांँसे
कुर्बान कर देती है अपने सपने पर रीती रहती आंँखें

कितनी ही प्रतिभाएँ कोख में मार डाली जातीं
जो जन्मीं संस्कारों की बेड़ियों में जकड़ी जातीं

दूसरे घर जाने का मंत्र सुन-सुन बड़ी होतीं
चाल-ढाल,रूप-रंग हर कसौटी पर कसी जातीं

नारी ने आधुनिकता का चोला तो पहन लिया
पर हाथ बँटाए नहीं कामकाजी महिला का पिया

एक जैसी पढ़ाई,एक जैसा पदभार पर वेतन नहीं
हर बात पर टोका -टाकी, जमाना ठीक नहीं 

परिवार के सपनों पर सदा कुर्बान होते नारी के सपने
त्याग की देवी का ठप्पा लगा छलते उसके अपने

रात दिन सबकी सेवा करे चाहे बच्चे हों या बूढ़े 
उसको  बीमार तक पड़ने का अधिकार नहीं 

अपने जीवन से अपने लिए चंद पल मिलते नहीं 
कभी दोस्तों संग जाने को कह दे भ्रकुटियाँ तनी 

बंधनों में जकड़ी हुई भी एक पहचान बनाई 
इतिहास से वर्तमान तक उदहारण देख लो भाई

Writer : Ritu Vemuri




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चेहरा एक खुली किताब

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        चेहरा एक खुली किताब    


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शीर्षक - चेहरा एक खुली किताब


शीर्षक :चेहरा एक खुली किताब
विधा : कविता 

चेहरा एक खुली किताब खुश हो खिले जैसे गुलाब 
दुखी चेहरे को प्रसाधन भी नहीं ढक पाते जनाब

अंत:करण का सारा अवसाद चेहरे पर टिकता है
आँखों की खामोशियों में अकेलापन छलकता है 

जबरदस्ती की मुस्कान,दिल खोल हँसी की पहचान 
बच्चा भी बता सकता कितनी है टूटन व कितनी थकान

चिंता समय से पहले खींच देती चेहरे पर लकीरें 
बालों की जर्दी में बसते जिम्मेदारियों के जजीरे

माथे में पड़े बल, सिकुड़ी भौहें चिंता की निशानी
इधर-उधर ताकती आँखों से छलकती बेईमानी 

चेहरा अपने आप में कई दास्ताने छिपाए रहता है 
इंसान के अरमानों के  खजाने छिपाए रहता है 

जीवन के नवरसों का लेखा-जोखा है चेहरा 
अन्तर्मन की हर्ष-विषाद का आईना है चेहरा

 पढ़ सकती सभी भाव केवल अनुभवी आँखें 
उससे भी गहराई की समझ देती डूबी आवाजें


Writer : Ritu Vemuri




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कविता हूँ मैं

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              कविता हूँ मैं                


©️copyright : ritu vemuri  ,bloomkosh के की अनुमति है।इस रचना का प्रयोग    की अनुमति बिना कही नही किया जा सकता है।


शीर्षक - कविता हूँ मैं 

कविता हूं मैं - शीर्षक /ritu vemuri 

कविता हूंँ मैं व्यक्ति की अनुभूतियों का गान हूँ मैं 
भावों से परिपूर्ण अन्तर्मन का सूक्ष्म आख्यान हूँ मैं 

हृदय में दबे अस्फुट अनुभवों को मुखरित करती 
मस्तिष्क में उपजते अनकहे विचारों का वितान हूँ मैं 

गेयता का पुट है मुझमें भावसौंदर्य से गात भरा 
भाषाशिल्प निखरा मुझसे तुकांत-अतुकांत हूँ मैं 

नवरसों की बहे मुझमें गंगा अलंकार-छंद रूप निखारे
समृद्ध हुआ मुझसे साहित्य, साहित्य का श्रृंगार हूँ मैं

दूसरों तक विचार पहुँचाने का सरल-सहज माध्यम 
शिक्षा का मनोरंजक साधन समझो वेद-पुराण हूँ मैं 

इतिहास की धरोहर को आजतक संँजोकर रखा 
वर्तमान को सँवारा मैंनें भविष्य का आधार हूँ  मैं

समाज का दर्पण हूँ मै क्रांति की मशाल हूँ मैं
बिजली की कौंध शब्दों में मेरे हाँ!यलगार हूँ मैं

कह न सकते जो खुलकर वो कागज़ पर उकेरें
मौन मेधावियों को दिलाती संपन्न पहचान हूँ मै

माँ की लोरी में मैं हूँ प्रेमियों की  तड़प में मैं बसती
नारी की कराह में मैं हूँ  पूजा और अजान हूँ मैं

भाव  के तार  जब  झंकृत  होते 
कविता के स्वर तब मुखरित होते

कविता हूंँ मैं व्यक्ति की अनुभूतियों का गान हूँ मैं 
भावों से परिपूर्ण अन्तर्मन का सूक्ष्म आख्यान हूँ मैं 

हृदय में दबे अस्फुट अनुभवों को मुखरित करती 
मस्तिष्क में उपजते अनकहे विचारों का वितान हूँ मैं 

गेयता का पुट है मुझमें भावसौंदर्य से गात भरा 
भाषाशिल्प निखरा मुझसे तुकांत-अतुकांत हूँ मैं 

नवरसों की बहे मुझमें गंगा अलंकार-छंद रूप निखारे
समृद्ध हुआ मुझसे साहित्य, साहित्य का श्रृंगार हूँ मैं

दूसरों तक विचार पहुँचाने का सरल-सहज माध्यम 
शिक्षा का मनोरंजक साधन समझो वेद-पुराण हूँ मैं 

इतिहास की धरोहर को आजतक संँजोकर रखा 
वर्तमान को सँवारा मैंनें भविष्य का आधार हूँ  मैं

समाज का दर्पण हूँ मै क्रांति की मशाल हूँ मैं
बिजली की कौंध शब्दों में मेरे हाँ!यलगार हूँ मैं

कह न सकते जो खुलकर वो कागज़ पर उकेरें
मौन मेधावियों को दिलाती संपन्न पहचान हूँ मै

माँ की लोरी में मैं हूँ प्रेमियों की  तड़प में मैं बसती
नारी की कराह में मैं हूँ  पूजा और अजान हूँ मैं

भाव  के तार  जब  झंकृत  होते 
कविता के स्वर तब मुखरित होते

कविता हूंँ मैं व्यक्ति की अनुभूतियों का गान हूँ मैं 
भावों से परिपूर्ण अन्तर्मन का सूक्ष्म आख्यान हूँ मैं 

हृदय में दबे अस्फुट अनुभवों को मुखरित करती 
मस्तिष्क में उपजते अनकहे विचारों का वितान हूँ मैं 

गेयता का पुट है मुझमें भावसौंदर्य से गात भरा 
भाषाशिल्प निखरा मुझसे तुकांत-अतुकांत हूँ मैं 

नवरसों की बहे मुझमें गंगा अलंकार-छंद रूप निखारे
समृद्ध हुआ मुझसे साहित्य, साहित्य का श्रृंगार हूँ मैं

दूसरों तक विचार पहुँचाने का सरल-सहज माध्यम 
शिक्षा का मनोरंजक साधन समझो वेद-पुराण हूँ मैं 

इतिहास की धरोहर को आजतक संँजोकर रखा 
वर्तमान को सँवारा मैंनें भविष्य का आधार हूँ  मैं

समाज का दर्पण हूँ मै क्रांति की मशाल हूँ मैं
बिजली की कौंध शब्दों में मेरे हाँ!यलगार हूँ मैं

कह न सकते जो खुलकर वो कागज़ पर उकेरें
मौन मेधावियों को दिलाती संपन्न पहचान हूँ मै

माँ की लोरी में मैं हूँ प्रेमियों की  तड़प में मैं बसती
नारी की कराह में मैं हूँ  पूजा और अजान हूँ मैं

भाव  के तार  जब  झंकृत  होते 
कविता के स्वर तब मुखरित होते

©️®️ ritu vemuri






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राजतंत्र का षड्यंत्र

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            राजतन्त्र का षड्यंत्र       


©️copyright : anjalee bhardwaj     ,bloomkosh के की अनुमति है।इस रचना का प्रयोग    की अनुमति बिना कही नही किया जा सकता है।


शीर्षक - राजतंत्र का षड्यंत्र


विधा: कविता
शीर्षक: राजतंत्र का षड्यंत्र
दिनाँक:२४/१०/२०२०
दिवस: शनिवार
कविता संख्या: 5️⃣
सदियों से ही होता आया राजतंत्र का षड्यंत्र है 

अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति का यह भी तंत्र है

केकई और मंथरा महत्वाकांँक्षा का ज्वलंत उदाहरण हैं

श्रीराम प्रभु का चौदह वर्षीय वनवास इसी के कारण है

बाली-सुग्रीव,रावण-विभीषण भाई -भाई की फूट है

कहीं ना कहीं इसमें सिंहासन  पाने का स्वर अस्फुट है

महाभारत का समर भी तो सिंहासन की प्रीत थी 

धृतराष्ट्र के पुत्र मोह पर रखी गयी जिसकी नींव थी

सत्ता लोलुपता की खातिर ही जयचंद जैसे गद्दार हुए 

कितने वीर पृथ्वीराज ऐसे जयचंदों की नज़र हुए

युगों से चलती आई यह परंपरा आज भी कायम है

सत्ता पद के मद से नैतिकता का होता आया हनन है

राजतंत्र के षड्यंत्रों ने मनुष्य के अधिकारों को खाया है

चोला ओढ़ शराफत का इसने निर्दोषों को सताया है

राजतंत्र के षड्यंत्रों का अंत अंततः प्रजा के हाथों होगा 

संगठन में शक्ति है प्रयास करें सफल अवश्य होगा

© Anjalee Chadda Bhardwaj
मौलिक स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित रचना




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क्या तेरा जाना जरुरी था

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