सुख और आनंद में सूक्ष्म अंतर

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शीर्षक - सुख और आनंद में सूक्ष्म अंतर


कविता 2
विषय:- सुख और आनंद में सूक्ष्म अंतर

समझ ले बंदे, सुख और आनंद में बड़ा सूक्ष्म हैं अंतर।
गलतफ़हमी इंसान की इस्तेमाल करता पर्याय समझकर।

सुख हमेशा किसीं व्यक्ती या वस्तू पे होता निर्भर।
आनंद तो हमारी प्रकृती झाँक ले जरा मन के भीतर।

आनंद में सुखानुभूती होती, पर सुख में नहीं मिलता आनंद।
आनंद का संबंध आत्मा से, सुख का संबंध शरीर के अंदर।

मनुष्य का आनंद अक्षय, अनंतकाली, शाश्वत। 
पर मनुष्य का हर सुख अल्पकाली, अस्थायी, क्षणिक।

आनंद से और आनंद हैं मिलता, सुख के बाद दुख आता अक्सर।
आनंद और सुख बांट़कर, स्वर्ग का अनुभव मिलता इसी धरापर।

"सत्, चित्, आनंद" स्वरूप हैं तेरा, देख जरा ज्ञान चक्षू खोलकर।
मत दौड़ क्षणिक सुख के पिछे, आनंद तो तेरे हृदय के भीतर।

रश्मी कौलवार
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बेटियाँ पराया धन

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शीर्षक - बेटियाँ पराया धन



 कविता 1
विषय:- बेटियाँ पराया धन
भगवान की असीम कृपा का फल।
जीस घर में पड़ते लक्ष्मी के कदम।
फिर क्यों कहें बेटियाँ पराया धन?

सौभाग्य माँ बाप का जहाँ लेती बेटी जनम।
जरूर पिछले जनम के कोई पुण्य करम।
फिर क्यों कहें बेटियाँ पराया धन?

परिवार के दुख से उद्विग्न होता जीसका मन।
अपनी खुशबू से महकाती बाबूल का आंगण।
फिर क्यों कहें बेटियाँ पराया धन?

पिता कन्यादान करके पाता है उत्तम फल।
बेटी ही जोडती दोनो घर के बीच कुलसंबंध।
फिर क्यों कहें बेटियाँ पराया धन?

विदा करके पिता अपना फ़र्ज निभाता।
बेटी दुसरा घर सजाकर कर्ज चुकाती।
फिर क्यों कहें बेटियाँ पराया धन?

रश्मी कौलवार.
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जिंदगी औरत की

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            जिंदगी औरत की         


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शीर्षक - जिंदगी औरत की


शीर्षक : जिंदगी औरत की
विधा।  :     कविता

जिंदगी औरत की जैसे तूफानों में फँसी किश्ती 
पहले जन्म के लिए संघर्ष फिर अस्तित्व की जंग लड़ती 

दूसरे घर जाना,बचपन से एक ही घुट्टी पी बड़ी होती 
दूसरे घर में भी पराई रहती लोलक सी झूलती रहती

सबकी सुनती-सोचती उसकी सुनने वाला कोई नहीं 
माँ-बीबी-बेटी-बहू हैं नाम,अपनी पहचान कुछ नहीं 

चाँद के सोने के बाद सोती,सूरज के उठने से पहले जगती
कभी ज़रा वो देर तक सो जाए पूरे घर में अफरातफरी मचती 

औरत की  जिंदगी की खलनायक इक औरत होती
 अपनी बेटी के लिए हाय तौबा बहू के लिए गड्ढे खोदती  

कामकाजी महिलाओं की जिंदगी तो दोधारी तलवार समान
काम करके जाती आते काम में जुटती रस्ते से भाजी खरीदती आती

बच्चों की पढ़ाई-ट्यूशन की पूरी जिम्मेदारी उसपर होती 
चूक करें बच्चें पर जवाबदारी औरत की होती 

 जिंदगी औरत की हमेशा ही  डर-हवस के साए में रहती
बाहर भेड़िए घूम ही रहे अपनों में भी रंगे सियार कम नहीं

जिंदगी औरत की आजकल समाचार की सुर्खियाँ बन गईं
 जिंदगी रही कहाँ मौत के साए में साँस लेने को विवश हो गई

Writer : Ritu Vemuri




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कागजी एहसास

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                कागजी अहसास        


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शीर्षक - कागजी एहसास

शीर्षक: कागजी एहसास

यहांँ  चेहरा  ही  असली  नहीं मुखौटा  है
एहसासों  की  बात  ना करें एक धोखा है

झूठी  मुस्कानों  के पीछे  दर्द के   सैलाब
झूठी मोहब्बत के पीछे हवस के नकाब

एहसास अंदर ही अंदर घुट कर मर रहे हैं
सुनने वाले शेरों की तारीफ  भी कर रहें हैं 

दिल में झाँकने वाला कोई तो मसीहा मिलता 
रौशनी के शहर में कोई असली दिया मिलता 

कागज़ों पर हो रहे जिंदगी के अहम फैसले 
एहसासों को कर रूसवा हो रहे आबरू पर हमले

By: Ritu Vemuri





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चारदीवारी के अंदर

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         चारदीवारी के अंदर         


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शीर्षक - चारदीवारी के अंदर


शीर्षक : चारदीवारी के अंदर
विधा : कविता

चारदीवारी में सुरक्षा अपनों का अपनापन है 
सुख-दुख बाँटते मिलकर,अपना वृंदावन है  

सुख-चैन  है  इसमे  इसी  में चारों धाम हैं 
सारी दुनिया घूम लो इसके जैसा न  स्थान है

माँ-बाप की दुआ इसमें भाई बहन का दुलार
दुनिया की भूखी नज़रों से बचने का सहार है

इसकी दहलीज जो लाँघी सच से सामना होगा
दुनिया की बेशर्मी,बेरहमी से जूझना होगा

जब तक रहें घर की बातें चारदीवारी के अंदर
तब तक पाए मान वो घर, एकता की मिसाल है 

हर आँख का सपना चारदीवारी और इक छत
रूखा-सूखा खाकर भी मिलता यहांँ अमृत है 

Writer : Ritu Vemuri




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बंधनों में जकड़ी हुई

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         बंधनों में जकड़ी हुई         


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शीर्षक - बंधनों में जकड़ी हुई


शीर्षक: बंधनों में जकड़ी हुई
विधा   : कविता

बंधनों में जकड़ी हुई सिसकती हैं नारी की सांँसे
कुर्बान कर देती है अपने सपने पर रीती रहती आंँखें

कितनी ही प्रतिभाएँ कोख में मार डाली जातीं
जो जन्मीं संस्कारों की बेड़ियों में जकड़ी जातीं

दूसरे घर जाने का मंत्र सुन-सुन बड़ी होतीं
चाल-ढाल,रूप-रंग हर कसौटी पर कसी जातीं

नारी ने आधुनिकता का चोला तो पहन लिया
पर हाथ बँटाए नहीं कामकाजी महिला का पिया

एक जैसी पढ़ाई,एक जैसा पदभार पर वेतन नहीं
हर बात पर टोका -टाकी, जमाना ठीक नहीं 

परिवार के सपनों पर सदा कुर्बान होते नारी के सपने
त्याग की देवी का ठप्पा लगा छलते उसके अपने

रात दिन सबकी सेवा करे चाहे बच्चे हों या बूढ़े 
उसको  बीमार तक पड़ने का अधिकार नहीं 

अपने जीवन से अपने लिए चंद पल मिलते नहीं 
कभी दोस्तों संग जाने को कह दे भ्रकुटियाँ तनी 

बंधनों में जकड़ी हुई भी एक पहचान बनाई 
इतिहास से वर्तमान तक उदहारण देख लो भाई

Writer : Ritu Vemuri




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चेहरा एक खुली किताब

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        चेहरा एक खुली किताब    


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शीर्षक - चेहरा एक खुली किताब


शीर्षक :चेहरा एक खुली किताब
विधा : कविता 

चेहरा एक खुली किताब खुश हो खिले जैसे गुलाब 
दुखी चेहरे को प्रसाधन भी नहीं ढक पाते जनाब

अंत:करण का सारा अवसाद चेहरे पर टिकता है
आँखों की खामोशियों में अकेलापन छलकता है 

जबरदस्ती की मुस्कान,दिल खोल हँसी की पहचान 
बच्चा भी बता सकता कितनी है टूटन व कितनी थकान

चिंता समय से पहले खींच देती चेहरे पर लकीरें 
बालों की जर्दी में बसते जिम्मेदारियों के जजीरे

माथे में पड़े बल, सिकुड़ी भौहें चिंता की निशानी
इधर-उधर ताकती आँखों से छलकती बेईमानी 

चेहरा अपने आप में कई दास्ताने छिपाए रहता है 
इंसान के अरमानों के  खजाने छिपाए रहता है 

जीवन के नवरसों का लेखा-जोखा है चेहरा 
अन्तर्मन की हर्ष-विषाद का आईना है चेहरा

 पढ़ सकती सभी भाव केवल अनुभवी आँखें 
उससे भी गहराई की समझ देती डूबी आवाजें


Writer : Ritu Vemuri




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