कविता हूँ मैं

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              कविता हूँ मैं                


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शीर्षक - कविता हूँ मैं 

कविता हूं मैं - शीर्षक /ritu vemuri 

कविता हूंँ मैं व्यक्ति की अनुभूतियों का गान हूँ मैं 
भावों से परिपूर्ण अन्तर्मन का सूक्ष्म आख्यान हूँ मैं 

हृदय में दबे अस्फुट अनुभवों को मुखरित करती 
मस्तिष्क में उपजते अनकहे विचारों का वितान हूँ मैं 

गेयता का पुट है मुझमें भावसौंदर्य से गात भरा 
भाषाशिल्प निखरा मुझसे तुकांत-अतुकांत हूँ मैं 

नवरसों की बहे मुझमें गंगा अलंकार-छंद रूप निखारे
समृद्ध हुआ मुझसे साहित्य, साहित्य का श्रृंगार हूँ मैं

दूसरों तक विचार पहुँचाने का सरल-सहज माध्यम 
शिक्षा का मनोरंजक साधन समझो वेद-पुराण हूँ मैं 

इतिहास की धरोहर को आजतक संँजोकर रखा 
वर्तमान को सँवारा मैंनें भविष्य का आधार हूँ  मैं

समाज का दर्पण हूँ मै क्रांति की मशाल हूँ मैं
बिजली की कौंध शब्दों में मेरे हाँ!यलगार हूँ मैं

कह न सकते जो खुलकर वो कागज़ पर उकेरें
मौन मेधावियों को दिलाती संपन्न पहचान हूँ मै

माँ की लोरी में मैं हूँ प्रेमियों की  तड़प में मैं बसती
नारी की कराह में मैं हूँ  पूजा और अजान हूँ मैं

भाव  के तार  जब  झंकृत  होते 
कविता के स्वर तब मुखरित होते

कविता हूंँ मैं व्यक्ति की अनुभूतियों का गान हूँ मैं 
भावों से परिपूर्ण अन्तर्मन का सूक्ष्म आख्यान हूँ मैं 

हृदय में दबे अस्फुट अनुभवों को मुखरित करती 
मस्तिष्क में उपजते अनकहे विचारों का वितान हूँ मैं 

गेयता का पुट है मुझमें भावसौंदर्य से गात भरा 
भाषाशिल्प निखरा मुझसे तुकांत-अतुकांत हूँ मैं 

नवरसों की बहे मुझमें गंगा अलंकार-छंद रूप निखारे
समृद्ध हुआ मुझसे साहित्य, साहित्य का श्रृंगार हूँ मैं

दूसरों तक विचार पहुँचाने का सरल-सहज माध्यम 
शिक्षा का मनोरंजक साधन समझो वेद-पुराण हूँ मैं 

इतिहास की धरोहर को आजतक संँजोकर रखा 
वर्तमान को सँवारा मैंनें भविष्य का आधार हूँ  मैं

समाज का दर्पण हूँ मै क्रांति की मशाल हूँ मैं
बिजली की कौंध शब्दों में मेरे हाँ!यलगार हूँ मैं

कह न सकते जो खुलकर वो कागज़ पर उकेरें
मौन मेधावियों को दिलाती संपन्न पहचान हूँ मै

माँ की लोरी में मैं हूँ प्रेमियों की  तड़प में मैं बसती
नारी की कराह में मैं हूँ  पूजा और अजान हूँ मैं

भाव  के तार  जब  झंकृत  होते 
कविता के स्वर तब मुखरित होते

कविता हूंँ मैं व्यक्ति की अनुभूतियों का गान हूँ मैं 
भावों से परिपूर्ण अन्तर्मन का सूक्ष्म आख्यान हूँ मैं 

हृदय में दबे अस्फुट अनुभवों को मुखरित करती 
मस्तिष्क में उपजते अनकहे विचारों का वितान हूँ मैं 

गेयता का पुट है मुझमें भावसौंदर्य से गात भरा 
भाषाशिल्प निखरा मुझसे तुकांत-अतुकांत हूँ मैं 

नवरसों की बहे मुझमें गंगा अलंकार-छंद रूप निखारे
समृद्ध हुआ मुझसे साहित्य, साहित्य का श्रृंगार हूँ मैं

दूसरों तक विचार पहुँचाने का सरल-सहज माध्यम 
शिक्षा का मनोरंजक साधन समझो वेद-पुराण हूँ मैं 

इतिहास की धरोहर को आजतक संँजोकर रखा 
वर्तमान को सँवारा मैंनें भविष्य का आधार हूँ  मैं

समाज का दर्पण हूँ मै क्रांति की मशाल हूँ मैं
बिजली की कौंध शब्दों में मेरे हाँ!यलगार हूँ मैं

कह न सकते जो खुलकर वो कागज़ पर उकेरें
मौन मेधावियों को दिलाती संपन्न पहचान हूँ मै

माँ की लोरी में मैं हूँ प्रेमियों की  तड़प में मैं बसती
नारी की कराह में मैं हूँ  पूजा और अजान हूँ मैं

भाव  के तार  जब  झंकृत  होते 
कविता के स्वर तब मुखरित होते

©️®️ ritu vemuri






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राजतंत्र का षड्यंत्र

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            राजतन्त्र का षड्यंत्र       


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शीर्षक - राजतंत्र का षड्यंत्र


विधा: कविता
शीर्षक: राजतंत्र का षड्यंत्र
दिनाँक:२४/१०/२०२०
दिवस: शनिवार
कविता संख्या: 5️⃣
सदियों से ही होता आया राजतंत्र का षड्यंत्र है 

अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति का यह भी तंत्र है

केकई और मंथरा महत्वाकांँक्षा का ज्वलंत उदाहरण हैं

श्रीराम प्रभु का चौदह वर्षीय वनवास इसी के कारण है

बाली-सुग्रीव,रावण-विभीषण भाई -भाई की फूट है

कहीं ना कहीं इसमें सिंहासन  पाने का स्वर अस्फुट है

महाभारत का समर भी तो सिंहासन की प्रीत थी 

धृतराष्ट्र के पुत्र मोह पर रखी गयी जिसकी नींव थी

सत्ता लोलुपता की खातिर ही जयचंद जैसे गद्दार हुए 

कितने वीर पृथ्वीराज ऐसे जयचंदों की नज़र हुए

युगों से चलती आई यह परंपरा आज भी कायम है

सत्ता पद के मद से नैतिकता का होता आया हनन है

राजतंत्र के षड्यंत्रों ने मनुष्य के अधिकारों को खाया है

चोला ओढ़ शराफत का इसने निर्दोषों को सताया है

राजतंत्र के षड्यंत्रों का अंत अंततः प्रजा के हाथों होगा 

संगठन में शक्ति है प्रयास करें सफल अवश्य होगा

© Anjalee Chadda Bhardwaj
मौलिक स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित रचना




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निगाहें

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                निगाहें                 


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शीर्षक - निगाहें


विधा: कविता
शीर्षक: निगाहें
दिनाँक:२४/१०/२०२०
दिवस: शनिवार
कविता संख्या:4️⃣

बसा लिया इनमें आपको ये निगाहों का कुसूर है

आपको ना जाने खुद पर किस बात का गुरूर है

दिलकश़ निगाहें सिर्फ़ आप ही को ढूंढती हुज़ूर हैं

इन मदहोश निगाहों में छलकता मय का सुरूर है

कहिए झील सी गहरी निगाहें हमसे क्या छुपाती हैं

हाल-ए-दिल क्या जिसके बेपर्दा होने से घबरातीं हैं

ख़ामोश दिखती हैं मगर हलचल इनके अंदर रहती है

गहराई इन निगाहों की एक समंदर के मानिंद होती है

दीदार-ए-यार की घड़ी में शर्म-ओ-हया से झुकती हैं

थरथराते हैं खामोश लब और एक सिहरन सी होती है

कहर ढा जातीं जब झुकी - झुकी सी निगाहें उठती हैं

आरपार होते खंज़र और बिजलियांँ दिल पर गिरती हैं

राज़ बेशुमार छुपे होते हैं इन निगाहों में कहीं गहरे

ये निगाहें उन पर बिठा देती हैं घनेरी पलकों के पहरे

जो कभी आएँ जुदाई की घड़ियाँ दर्द से भर जाती हैं

ख़ुशी के लम्हों में ये भर कर छलक - छलक आती हैं

निगाहें इंसान के अंदरूनी अहसासों का आईना होती हैं

कभी शातिर , कभी कातिल तो कभी ये मासूम होती हैं

-© Anjalee Chadda Bhardwaj

मौलिक स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित रचना
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मेरा मन

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शीर्षक - मेरा मन 



विधा: कविता
शीर्षक: मेरा मन
दिनाँक:२४/१०/२०२०
दिवस: शनिवार
कविता संख्या:3️⃣

मेरा मन एक बार फिर मिलना चाहे तुमसे

सिर्फ़ तुम ही तुम आ कर मिलो मुझसे 

सभी शिकवे-शिकायतें छोड़ कर आना

सभी रस्मो-रवायतों को तोड़ कर आना

और हाँ तुम और केवल तुम ही आना

मेरा एक बार तुम्हें देखने का मन है फिर से

कि क्या कहती है तुम्हारी आँखें मुझसे

इनमें मेरे लिए वही तलाश लेकर आना

इनमें उजाला और प्यास भूल ना जाना

और हाँ तुम और केवल तुम ही आना 

मेरा एक बार तुम्हें सुनने का मन है फिर से

कि क्या कहती है दिल की तड़प मुझसे

इसमें मेरे लिए वही एहसास साथ लाना

इसमें महकती साँसों को भूल ना आना

और हाँ तुम और केवल तुम ही  आना

-©Anjalee Chadda Bhardwaj

स्वरचित-मौलिक सर्वाधिकार सुरक्षित रचना
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जागृत करो अंतरात्मा

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             जाग्रत करो अंतरात्मा    


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शीर्षक - जागृत करो अंतरात्मा


विधा: कविता
शीर्षक: जागृत करो अंतरात्मा
दिनाँक:२४/१०/२०२०
दिवस: शनिवार
कविता संख्या:2️⃣

वह किशोरी वह नव यौवना किसी  बगिया की मासूम सी कली थी। 

माता-पिता की आँखों की पुतली बड़े ही नाजों- लाडों से वह पली थी।।

भाइयों की प्राणों से प्यारी बहना लाज -शर्म और हया था जिस का गहना।

काम उसका पढ़ना, हंसना खिलखिलाना और माँ संग कामों में हाथ बँटाना।।

जाने क्यों जुल्मी- आतताईयों की कुत्सित गिद्ध दृष्टि उस पर डोल गयी।

क्या बिगाड़ा था उस मासूम ने उनका या क्या वह उनको बोल गयी।।

इतनी बेरहमी से कुचला उस कोमल कली के नाजुक अरमानों को।

इंसान की तो बिसात ही क्या देख कर शर्म आ जाए हैवानों  को।।

इतने कुकर्मों के बाद भी हत्यारों का कलेजा नहीं तृप्त हुआ।

रूदन क्रंदन सुनकर भी वह पिशाच हैवानियत में लिप्त हुआ।।

मरणासन्न अवस्था करके उसको सड़ने को नर्क में झोंक दिया।

फिर शर्मसार हुई मानवता उसके सीने में खंजर घोंप दिया।।

इस मूकबधिर समाज की उपेक्षा वह और अधिक ना सहने पाई।

सदा के लिए मौन हो गई मिट्टी में मिल गई वह इस मिट्टी की जाई।।

एक यक्ष प्रश्न आज फ़िर से वह हम सबके समक्ष छोड़ गई।

आख़िर कब तक सब मौन धरेंगे  कब तक चढ़ेगी मासूमों की बलि।।

समय आ गया है अब सब संगठित हो कर बुलंद आवाज़ उठाओ।

ऐसे नीच अधम दुष्कर्मियों को सामाजिक अधिकारों से वंचित करवाओ।।

अध्यादेश निर्माण हो ऐसे कि इनको माफी नहीं सीधे फाँसी पर लटकाओ।

निर्ममता का बदला अति निर्मम हो इन पर हरगिज़ दया ना दिखलाओ।

-© Anjalee Chadda Bhardwaj
मौलिक स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित रचना
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नवल किरण

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                नवल किरण             


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शीर्षक - नवल किरण



विधा: कविता
शीर्षक: नवल किरण
दिनांक: २४/१०/२०२०
वार: शनिवार
कविता संख्या:1️⃣
 
रश्मिरथी दिवाकर निज स्वर्णिम आभा लिए उदित होने को सज्जित हो रहा

आलोकित प्रखर तेज समक्ष ,तमस का कलुषित साम्राज्य विलुप्तप्राय हो रहा

सघन विटप द्रुमों पर खग- विहग के मधुर कलरव से संगीतमय वातावरण हो रहा

मलय की सुवसित मंद -मंद सुगंध लिए शीतल बयार से तन मन प्रफुल्लित हो रहा

दिग-दिगंत में गूंज रही वेदों की ऋचाएँ, अलौकिकता का अनुभव अपार हो रहा

तेजोमय नवल किरणों से नवप्रभात की मंगल बेला में नवजीवन का संचार हो रहा

मिटी व्याप्त नकारात्मकता वातावरण में चंहुओर सकारात्मकता का प्रसार हो रहा

नव -चेतना, नव-प्राण,नव-सृजन , नव-उत्साह से सकल जन-जीवन का साक्षात्कार हो रहा

प्रखर नवल किरणों के संदेश से हृदय में ज्ञान एवं चेतना का दीप प्रज्वलित हो रहा

निज पुरुषार्थ से आनंदानुभूति सह आत्मविश्वास रूपी नव पल्लव स्फुटित हो रहा

हे नरश्रेष्ठ उठ ! तज दे आलस्य ,कर अंतस में नवचेतना जागृत तू क्यों सुप्त हो रहा

हृदय कर्मपथ पर सत्कर्मों की पताका लहरा इतिहास रचने को आतुर हो रहा

-©Anjalee Chadda Bhardwaj

स्वरचित मौलिक सर्वाधिकार 
सुरक्षित रचना
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नारी शक्ति

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शीर्षक - नारी शक्ति


विधा - कविता
शीर्षक- नारी शक्ति

पुरुष प्रधान समाज में होता आज भी स्त्री का शोषण है

भले ही हम कितना कह लें स्त्री समाज का दर्पण है

आत्मजा–भार्या, माता –प्रेयसी उसके रूप अनेक हैं

रूप भिन्न है फिर भी कोमल प्रेममय हृदय तो एक है

धरिणी जैसी सहनशीलता स्त्री के सद्चरित्र की शान है

सहनशीलता सद्गुण है उसका और मान सम्मान है

लोलुप दृष्टि,कुत्सित इरादे वह भली-भांति है पहचानती

व्यभिचारियों के निर्लज्ज आमंत्रण-मंतव्य ना स्वीकारती

दग़्ध कर सकते हो तेजाबों से उसकी बाहरी सुंदरता

इससे सिद्ध होती है केवल तुम्हारी कुंठित मानसिकता

हे पुरुष, कलुषित मत कर अब स्त्री की अस्मत को

अपराजिता है वह,ना ललकारो तुम उसकी हिम्मत को

यदि अपनी पर आगई वह तो ना चूड़ी कंगन खनकाएगी

अपने सम्मान स्वाभिमान हेतु रणचंडी बन खड़ग उठाएगी

अन्याय के विरुद्ध संघर्ष यज्ञ में आहुति हमें भी देना है

संगठित हो निर्मम अत्याचारों का पुरज़ोर विरोध करना है

–© Anjalee Chadda Bhardwaj
स्वरचित- मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित रचना





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क्या तेरा जाना जरुरी था

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