चारदीवारी के अंदर

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         चारदीवारी के अंदर         


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शीर्षक - चारदीवारी के अंदर


शीर्षक : चारदीवारी के अंदर
विधा : कविता

चारदीवारी में सुरक्षा अपनों का अपनापन है 
सुख-दुख बाँटते मिलकर,अपना वृंदावन है  

सुख-चैन  है  इसमे  इसी  में चारों धाम हैं 
सारी दुनिया घूम लो इसके जैसा न  स्थान है

माँ-बाप की दुआ इसमें भाई बहन का दुलार
दुनिया की भूखी नज़रों से बचने का सहार है

इसकी दहलीज जो लाँघी सच से सामना होगा
दुनिया की बेशर्मी,बेरहमी से जूझना होगा

जब तक रहें घर की बातें चारदीवारी के अंदर
तब तक पाए मान वो घर, एकता की मिसाल है 

हर आँख का सपना चारदीवारी और इक छत
रूखा-सूखा खाकर भी मिलता यहांँ अमृत है 

Writer : Ritu Vemuri




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बंधनों में जकड़ी हुई

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         बंधनों में जकड़ी हुई         


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शीर्षक - बंधनों में जकड़ी हुई


शीर्षक: बंधनों में जकड़ी हुई
विधा   : कविता

बंधनों में जकड़ी हुई सिसकती हैं नारी की सांँसे
कुर्बान कर देती है अपने सपने पर रीती रहती आंँखें

कितनी ही प्रतिभाएँ कोख में मार डाली जातीं
जो जन्मीं संस्कारों की बेड़ियों में जकड़ी जातीं

दूसरे घर जाने का मंत्र सुन-सुन बड़ी होतीं
चाल-ढाल,रूप-रंग हर कसौटी पर कसी जातीं

नारी ने आधुनिकता का चोला तो पहन लिया
पर हाथ बँटाए नहीं कामकाजी महिला का पिया

एक जैसी पढ़ाई,एक जैसा पदभार पर वेतन नहीं
हर बात पर टोका -टाकी, जमाना ठीक नहीं 

परिवार के सपनों पर सदा कुर्बान होते नारी के सपने
त्याग की देवी का ठप्पा लगा छलते उसके अपने

रात दिन सबकी सेवा करे चाहे बच्चे हों या बूढ़े 
उसको  बीमार तक पड़ने का अधिकार नहीं 

अपने जीवन से अपने लिए चंद पल मिलते नहीं 
कभी दोस्तों संग जाने को कह दे भ्रकुटियाँ तनी 

बंधनों में जकड़ी हुई भी एक पहचान बनाई 
इतिहास से वर्तमान तक उदहारण देख लो भाई

Writer : Ritu Vemuri




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चेहरा एक खुली किताब

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        चेहरा एक खुली किताब    


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शीर्षक - चेहरा एक खुली किताब


शीर्षक :चेहरा एक खुली किताब
विधा : कविता 

चेहरा एक खुली किताब खुश हो खिले जैसे गुलाब 
दुखी चेहरे को प्रसाधन भी नहीं ढक पाते जनाब

अंत:करण का सारा अवसाद चेहरे पर टिकता है
आँखों की खामोशियों में अकेलापन छलकता है 

जबरदस्ती की मुस्कान,दिल खोल हँसी की पहचान 
बच्चा भी बता सकता कितनी है टूटन व कितनी थकान

चिंता समय से पहले खींच देती चेहरे पर लकीरें 
बालों की जर्दी में बसते जिम्मेदारियों के जजीरे

माथे में पड़े बल, सिकुड़ी भौहें चिंता की निशानी
इधर-उधर ताकती आँखों से छलकती बेईमानी 

चेहरा अपने आप में कई दास्ताने छिपाए रहता है 
इंसान के अरमानों के  खजाने छिपाए रहता है 

जीवन के नवरसों का लेखा-जोखा है चेहरा 
अन्तर्मन की हर्ष-विषाद का आईना है चेहरा

 पढ़ सकती सभी भाव केवल अनुभवी आँखें 
उससे भी गहराई की समझ देती डूबी आवाजें


Writer : Ritu Vemuri




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कविता हूँ मैं

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              कविता हूँ मैं                


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शीर्षक - कविता हूँ मैं 

कविता हूं मैं - शीर्षक /ritu vemuri 

कविता हूंँ मैं व्यक्ति की अनुभूतियों का गान हूँ मैं 
भावों से परिपूर्ण अन्तर्मन का सूक्ष्म आख्यान हूँ मैं 

हृदय में दबे अस्फुट अनुभवों को मुखरित करती 
मस्तिष्क में उपजते अनकहे विचारों का वितान हूँ मैं 

गेयता का पुट है मुझमें भावसौंदर्य से गात भरा 
भाषाशिल्प निखरा मुझसे तुकांत-अतुकांत हूँ मैं 

नवरसों की बहे मुझमें गंगा अलंकार-छंद रूप निखारे
समृद्ध हुआ मुझसे साहित्य, साहित्य का श्रृंगार हूँ मैं

दूसरों तक विचार पहुँचाने का सरल-सहज माध्यम 
शिक्षा का मनोरंजक साधन समझो वेद-पुराण हूँ मैं 

इतिहास की धरोहर को आजतक संँजोकर रखा 
वर्तमान को सँवारा मैंनें भविष्य का आधार हूँ  मैं

समाज का दर्पण हूँ मै क्रांति की मशाल हूँ मैं
बिजली की कौंध शब्दों में मेरे हाँ!यलगार हूँ मैं

कह न सकते जो खुलकर वो कागज़ पर उकेरें
मौन मेधावियों को दिलाती संपन्न पहचान हूँ मै

माँ की लोरी में मैं हूँ प्रेमियों की  तड़प में मैं बसती
नारी की कराह में मैं हूँ  पूजा और अजान हूँ मैं

भाव  के तार  जब  झंकृत  होते 
कविता के स्वर तब मुखरित होते

कविता हूंँ मैं व्यक्ति की अनुभूतियों का गान हूँ मैं 
भावों से परिपूर्ण अन्तर्मन का सूक्ष्म आख्यान हूँ मैं 

हृदय में दबे अस्फुट अनुभवों को मुखरित करती 
मस्तिष्क में उपजते अनकहे विचारों का वितान हूँ मैं 

गेयता का पुट है मुझमें भावसौंदर्य से गात भरा 
भाषाशिल्प निखरा मुझसे तुकांत-अतुकांत हूँ मैं 

नवरसों की बहे मुझमें गंगा अलंकार-छंद रूप निखारे
समृद्ध हुआ मुझसे साहित्य, साहित्य का श्रृंगार हूँ मैं

दूसरों तक विचार पहुँचाने का सरल-सहज माध्यम 
शिक्षा का मनोरंजक साधन समझो वेद-पुराण हूँ मैं 

इतिहास की धरोहर को आजतक संँजोकर रखा 
वर्तमान को सँवारा मैंनें भविष्य का आधार हूँ  मैं

समाज का दर्पण हूँ मै क्रांति की मशाल हूँ मैं
बिजली की कौंध शब्दों में मेरे हाँ!यलगार हूँ मैं

कह न सकते जो खुलकर वो कागज़ पर उकेरें
मौन मेधावियों को दिलाती संपन्न पहचान हूँ मै

माँ की लोरी में मैं हूँ प्रेमियों की  तड़प में मैं बसती
नारी की कराह में मैं हूँ  पूजा और अजान हूँ मैं

भाव  के तार  जब  झंकृत  होते 
कविता के स्वर तब मुखरित होते

कविता हूंँ मैं व्यक्ति की अनुभूतियों का गान हूँ मैं 
भावों से परिपूर्ण अन्तर्मन का सूक्ष्म आख्यान हूँ मैं 

हृदय में दबे अस्फुट अनुभवों को मुखरित करती 
मस्तिष्क में उपजते अनकहे विचारों का वितान हूँ मैं 

गेयता का पुट है मुझमें भावसौंदर्य से गात भरा 
भाषाशिल्प निखरा मुझसे तुकांत-अतुकांत हूँ मैं 

नवरसों की बहे मुझमें गंगा अलंकार-छंद रूप निखारे
समृद्ध हुआ मुझसे साहित्य, साहित्य का श्रृंगार हूँ मैं

दूसरों तक विचार पहुँचाने का सरल-सहज माध्यम 
शिक्षा का मनोरंजक साधन समझो वेद-पुराण हूँ मैं 

इतिहास की धरोहर को आजतक संँजोकर रखा 
वर्तमान को सँवारा मैंनें भविष्य का आधार हूँ  मैं

समाज का दर्पण हूँ मै क्रांति की मशाल हूँ मैं
बिजली की कौंध शब्दों में मेरे हाँ!यलगार हूँ मैं

कह न सकते जो खुलकर वो कागज़ पर उकेरें
मौन मेधावियों को दिलाती संपन्न पहचान हूँ मै

माँ की लोरी में मैं हूँ प्रेमियों की  तड़प में मैं बसती
नारी की कराह में मैं हूँ  पूजा और अजान हूँ मैं

भाव  के तार  जब  झंकृत  होते 
कविता के स्वर तब मुखरित होते

©️®️ ritu vemuri






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राजतंत्र का षड्यंत्र

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            राजतन्त्र का षड्यंत्र       


©️copyright : anjalee bhardwaj     ,bloomkosh के की अनुमति है।इस रचना का प्रयोग    की अनुमति बिना कही नही किया जा सकता है।


शीर्षक - राजतंत्र का षड्यंत्र


विधा: कविता
शीर्षक: राजतंत्र का षड्यंत्र
दिनाँक:२४/१०/२०२०
दिवस: शनिवार
कविता संख्या: 5️⃣
सदियों से ही होता आया राजतंत्र का षड्यंत्र है 

अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति का यह भी तंत्र है

केकई और मंथरा महत्वाकांँक्षा का ज्वलंत उदाहरण हैं

श्रीराम प्रभु का चौदह वर्षीय वनवास इसी के कारण है

बाली-सुग्रीव,रावण-विभीषण भाई -भाई की फूट है

कहीं ना कहीं इसमें सिंहासन  पाने का स्वर अस्फुट है

महाभारत का समर भी तो सिंहासन की प्रीत थी 

धृतराष्ट्र के पुत्र मोह पर रखी गयी जिसकी नींव थी

सत्ता लोलुपता की खातिर ही जयचंद जैसे गद्दार हुए 

कितने वीर पृथ्वीराज ऐसे जयचंदों की नज़र हुए

युगों से चलती आई यह परंपरा आज भी कायम है

सत्ता पद के मद से नैतिकता का होता आया हनन है

राजतंत्र के षड्यंत्रों ने मनुष्य के अधिकारों को खाया है

चोला ओढ़ शराफत का इसने निर्दोषों को सताया है

राजतंत्र के षड्यंत्रों का अंत अंततः प्रजा के हाथों होगा 

संगठन में शक्ति है प्रयास करें सफल अवश्य होगा

© Anjalee Chadda Bhardwaj
मौलिक स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित रचना




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निगाहें

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                निगाहें                 


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शीर्षक - निगाहें


विधा: कविता
शीर्षक: निगाहें
दिनाँक:२४/१०/२०२०
दिवस: शनिवार
कविता संख्या:4️⃣

बसा लिया इनमें आपको ये निगाहों का कुसूर है

आपको ना जाने खुद पर किस बात का गुरूर है

दिलकश़ निगाहें सिर्फ़ आप ही को ढूंढती हुज़ूर हैं

इन मदहोश निगाहों में छलकता मय का सुरूर है

कहिए झील सी गहरी निगाहें हमसे क्या छुपाती हैं

हाल-ए-दिल क्या जिसके बेपर्दा होने से घबरातीं हैं

ख़ामोश दिखती हैं मगर हलचल इनके अंदर रहती है

गहराई इन निगाहों की एक समंदर के मानिंद होती है

दीदार-ए-यार की घड़ी में शर्म-ओ-हया से झुकती हैं

थरथराते हैं खामोश लब और एक सिहरन सी होती है

कहर ढा जातीं जब झुकी - झुकी सी निगाहें उठती हैं

आरपार होते खंज़र और बिजलियांँ दिल पर गिरती हैं

राज़ बेशुमार छुपे होते हैं इन निगाहों में कहीं गहरे

ये निगाहें उन पर बिठा देती हैं घनेरी पलकों के पहरे

जो कभी आएँ जुदाई की घड़ियाँ दर्द से भर जाती हैं

ख़ुशी के लम्हों में ये भर कर छलक - छलक आती हैं

निगाहें इंसान के अंदरूनी अहसासों का आईना होती हैं

कभी शातिर , कभी कातिल तो कभी ये मासूम होती हैं

-© Anjalee Chadda Bhardwaj

मौलिक स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित रचना
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मेरा मन

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शीर्षक - मेरा मन 



विधा: कविता
शीर्षक: मेरा मन
दिनाँक:२४/१०/२०२०
दिवस: शनिवार
कविता संख्या:3️⃣

मेरा मन एक बार फिर मिलना चाहे तुमसे

सिर्फ़ तुम ही तुम आ कर मिलो मुझसे 

सभी शिकवे-शिकायतें छोड़ कर आना

सभी रस्मो-रवायतों को तोड़ कर आना

और हाँ तुम और केवल तुम ही आना

मेरा एक बार तुम्हें देखने का मन है फिर से

कि क्या कहती है तुम्हारी आँखें मुझसे

इनमें मेरे लिए वही तलाश लेकर आना

इनमें उजाला और प्यास भूल ना जाना

और हाँ तुम और केवल तुम ही आना 

मेरा एक बार तुम्हें सुनने का मन है फिर से

कि क्या कहती है दिल की तड़प मुझसे

इसमें मेरे लिए वही एहसास साथ लाना

इसमें महकती साँसों को भूल ना आना

और हाँ तुम और केवल तुम ही  आना

-©Anjalee Chadda Bhardwaj

स्वरचित-मौलिक सर्वाधिकार सुरक्षित रचना
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