सब दिखावा है

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शीर्षक - सब दिखावा है




Poem 1

Sab dikhawa he

............................

ये आरती ये सृंगार आज किस काम की

दस बे दिन के बाद फिर सिकार तेरे शाम की !!


जो आज हर घर हर गली में मेरे नाम के गुण गाते हो

जब मांगती रहम तो गर्दन मोड के क्यों चले जाते हो !!


ये जो लगाए हो तमाशा नारी भक्ति का इस जाहान में

तुम ही वो कातिल निकलो गे जब लौटाओगे समसान में !!


मत करो ये दिखावा उसपे जो तुमको बनाया सवारा है

असली पूजा तो उसकी करो जो बेचारी किसिका साहारा है !!






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अब तो आजा माँ


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                अब तो आजा माँ       


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शीर्षक - अब तो आजा माँ 



तरसी है यह अँखियां, न जाने कब से माँ,
पुकारती तेरी संतान, अब तो आजा, हे 'माँ'।

हो रहा है शंखनाद, साथ में फूलों की बरसात,
भँवरे कर रहे गुंजन, बड़ी सुहानी है यह रात,
देखो जरा! अतुलनीय खुशी से कैसे सिंह सजा है,
मस्त पवन से लहरा रही मेरी 'माई' की ध्वजा है।
                   हुई है 'महामाया' अब शेर पर सवार,
                   एक हाथ में सोहे खप्पर, दूजे में तलवार,
                   देखो क्षिति भी स्वागत गीत है गा रही,
                   माँ के दर्शन की अब घड़ी निकट आ रही।
मिटा हर ताप इस धरा से, तेरी बेटियां पुकारती,
कहीं बंद कमरों से तो कहीं दबाई गई, तेरी संताने चित्कारती।
है यकीं हमें भी कि अब धरा का भार हटेगा,
निर्मलता की सुगंध से यह सारा संसार महकेगा।
        मिटेगा हर अँधकार और अमावस को भी उजियारी छाएगी,
        जब इस तम को मिटाने को स्वयं महामाया धरा पर आएंगी




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हम जिद्दी

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शीर्षक - हम जिद्दी


देखो आज यह सागर कितना शांत है,
क्योंकि थम चुका अब तूफ़ान है।
वही तूफ़ान जो मचा रहा था उत्पात अपार,
थी हमारी भी नैया उस समय मझधार।
                 अब बातें थीं अपनों की याद आने लगी,
                 कहा था उन्होंने कि है खतरा, हमें है आशंका लगी।
                  किन्तु हम ठहरे जिद्दी, हम ना सुनते किसी की,
                करके हौंसले बुलंद, कर ली थी हमने भी अपने मन की।
लगता था ऐसा कि जैसे सागर की लहरें पुकार रही,
कभी सागर में भी सफर करो, जैसे हो हमसे कह रही।
न रोक सके थे हम खुदको और नैया थी आगे बढ़ा दी,
क्या होगा आगे? नहीं थी इसकी परवाह की।
                     ‌  अब था हमने भी तूफान को ललकारा,
                 ‌‌      था एकमात्र विश्वास ही हमारा सहारा।
                       पहुंचेंगे अवश्य किनारे पर, यह अटूट विश्वास था,
                   जीत हुई विश्वास की और पा लिया हमने किनारा था।
 
हौंसले यदि बुलंद हो और खुद पर हो विश्वास, तो कभी न सकोगे तुम बिखर,
अपनी कमज़ोरी को ताकत बना 'अरुणिमा सिन्हा' थी चढ़ गई ,सर्वोच्च शिखर।




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अजीब दुनिया

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शीर्षक - 


कितनी अजीब है यह दुनिया,
और इस दुनिया के रंग,
है कुछ ऐसे भी जो दूर रहकर भी पास है,
और है कुछ बहुत दूर, रहकर भी संग।
                कोई सच्चे साथी के लिए तड़पता,
                तो कोई पास होने पर भी परवाह नहीं करता।
                जैसे कोई तपते रेगिस्तान में पानी की बूँद को तलाशता,
                तो कोई सागर में भी प्यासा खुद को पाता।
जैसे कोई मीन बाढ़ के साथ मरूस्थल में आ जाए,
और उसी को तालाब समझ वहीं रुक जाए,
जब हो उसका असलियत से सामना,
तो उसके पैरों तले जमीन खिसक जाए।
             तड़पती, इधर-उधर भटकती वह मात्र एक तालाब के लिए,
            ‌ क्या इसी के लिए थे उसने सागर छोड़ दिए?
             हिम्मत नहीं हारी उसने, आख़री दम तक करती रही प्रयास,
              कुछ दूरी पर पानी देखकर बंधी थी उसे आस।
पर यह क्या? दिल उसका सहम गया,
मृग मरीचिका देखकर जीवन भी उसका थम गया।
खुश्बु ढूंढती जरिया और जरिया तलाशता मंज़िल,
सभी एक के पीछे एक, नहीं किसी को भी कुछ हासिल।




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सब राज था झुठा

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शीर्षक - सब राज था झुठा 


एक दिन औरों के लिये 

कुर्बान करके आयी वो काली रात 

सो रहा था अकेला कर गयी वो घात

समझ नहीं सका मैं ,और 

न ही समझ सकी वो

वो गया उजाला, पौ फटी ,किनारा टुटा 

सब राज था झुठा 

मुझे बनाया शिकार ,बन गयी खुद धन्धुकार।





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एक सवाल

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               एक सवाल                


©️copyright :  priya pandya  ,bloomkosh के पास संकलन की अनुमति है।इस रचना का प्रयोग    की अनुमति बिना कही नही किया जा सकता है।


शीर्षक - एक सवाल


एक सवाल है समाज के ठेकेदारों से, क्यों हर बार हर्जाना नारी को भरना पड़ता है?
क्यों पुरूष प्रधान समाज में, सागर तो हमेशा रुक जाते हैं, नदियों को ही बहना पड़ता है।

लक्ष्मी ,अवंती ,दुर्गा ये सब वो नारी थी ,जिनके आगे पुरुषों की समाज भी हारी थी
फिर भी क्यों हर युगों में , जीवन की अग्निपरीक्षा से औरत को ही गुजरना पड़ता है ? 
सागर तो रुक ...... 

क्यों बेटो को बेटी से बढ़कर माना जाता है? क्यों गर्भ में कन्या भ्रूण को ही मरना पड़ता है?
क्यों उच्च शिक्षा हमेशा बेटों को दिलाई जाती है? क्यों बेटी को ही अनपढ़ रहना पड़ता है?
सागर तो रुक....... 

क्यों बहु ही हमेशा जिंदा जलाई जाती हैं? क्यों औरत की ही बोली लगाई जाती है?
क्यों परदे में औरत को घुटकर रहना पड़ता है। क्यों हर दर्द चुप होकर सहना पड़ता है?
सागर तो रुक........ 

क्यों हर रूढ़िवादिता, औरत पर लागू होती है, क्यों नारी ही हमेशा चिता पर जिंदा सोती है।
क्यों हर युग में सीता का ही हरण होता है,क्यों हर युग में नारी को जौहर करना पड़ता है?
सागर तो रुक........ 
एक सवाल............ 
-priya pandya




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कैसे संभाले

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शीर्षक - कैसे संभाले 


बागवा प्यारा सा, मेरा तूफा में बिखर सा गया है! 
वक़्त के साथ मेरा बहुत कुछ बदल सा गया है! 

ज़िंदगी की कश्ती बीच मझदार में डगमगाती रही! 
कैसे बचे जब साहिल हमसे पीछे कहीं छूट सा गया है! 

कैसे संभाले जब माँझी ही हमें डुबाने पर उतारूँ हो! 
लगता है हमें खुदा हमारा हमसे अब रूठ सा गया है।

आखिर हौसले की पतवार भी कब तक यूँ बचाएगी! 
जब शांत लहरों में ही तूफान अब उठ सा गया है।

आखिर समेटे भी तो कैसे आईने के टूटे टुकड़ों को।
जब अक्स ही हमारा इस दुनिया में बन झूठ सा गया है।

अब तो ना डूबने का डर और ना ही बचने की आस हैं।
जो संग था कारवां हमारे वह कहीं पीछे छूट सा गया है।




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क्या तेरा जाना जरुरी था

                  क्या तेरा जाना जरुरी था  बचपन तू मुझे अकेला कर गया,क्या तेरा जाना जरुरी था। यदि हाँ तो साथ ले चलता,क्या मुझे पीछे छोड़ना जर...