सपना

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                सपना                     


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शीर्षक - सपना


Poem-1                        
        सपना
करता जा तू कोशिश बन्दे, 
रब    तो    तेरे   साथ   है। 
डरता क्यों है  मुश्किलों से, 
ये   तो  मात्र   पड़ाव   है।। 
पड़ाव तो ऐसे बहुत आयेगे, 
तो   क्या   डरकर   बैठेगा। 
और देखा था जो सपना तू ने, 
तो   क्या   उसको   तोड़ेगा।। 
तोड़ना नहीं है सपना तुझको, 
बल्कि  उसको  तो  पाना  है।
उसके बाद जो खुशी मिलेगी, 
उसमें  ही  तो   खजाना  है।। 
माता- पिता के चेहरे पर फिर, 
प्यारी   सी   मुस्कान    होगी। 
गर्व   से   सीना   चौड़ा  होगा, 
उसमें तेरी भी तो शान होगी।। 
तो  लग  जा   फिर  तू   अपने, 
उस   सपने   को  पूरा   करने। 
और लगा दे अपनी पूरी मेहनत, 
फिर उस सपने को पूरा कर दे।। 





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मेरा परिवार

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              मेरा परिवार            


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शीर्षक - मेरा परिवार

कविता 5
विषय:-मेरा परिवार

त्याग, समर्पण के आधार से जहाँ एक दुसरे के दिल में प्यार 
खुशियों की बुनियाद है, मुस्कुराने की वजह हैं परिवार

एक दुसरें की भावनाओं की कद्र अपनापन बेशुमार
विश्वास हो मन में जहाँ खडी न होती गलतफ़हमी की दिवार

बडे बुजूर्गो की इज़्जत, छोट़ों से अशिष होता अतिथी सत्कार
अपनी संस्कृती, सभ्यता विरासत, रहते सदैव संस्कार

थोडी होती नोक़झोक पर स्नेह और प्रेम से सुलझती हर तकरार
परिवार संग हर क्षण लगता जैसे कोई तीज़-त्योहार

सुख दुःख बांट़ते मुश्किल वक्त में मजबूती से झेलते हर प्रहार
एकजूट़ का सुरक्षा कवच हमारा कोई शत्रू ना करता वार

एकता शक्ति सबकी, एक दुसरें की मिलकर खुशी से सज़ता संसार
सुखी परिवार में ही लक्ष्मी, सरस्वती सदैव रहती घर द्वार

रश्मी कौलवार




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स्वार्थ से परमार्थ तक का सफर

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शीर्षक - स्वार्थ से परमार्थ तक का सफर


कविता 4
विषय:- स्वार्थ से परमार्थ तक का सफर

हर मनुष्य के लिए आसान नही हैं, ये स्वार्थ से परमार्थ तक का सफर।
जन्म से ही स्वयं के बारे में सोचने की, आदत लगी हैं उसे इस कदर।

पहले अपना विचार करके ही, फिर वो परोपकार करता सोच समझकर।
मनुष्य जीता होकर स्वार्थी माया, मोह, ममता, आशा की पट्टी बांधकर।

परमार्थ शूरु होता, जब वो जीता दुसरों के लिए मोह, माया को त्याग कर।
अंतशक्ती जलाता काम, क्रोध, लोभ, मोह की तृष्णा को भस्म कर।

परमार्थ में प्रभू भक्ति, विवेक की ज्योती से जब जीता विरक्त होकर।
अपना अभिमान त्यागकर, कर्म भी करता सारे फल की आशा छोड़कर।

इंद्रियों को वश में करके, जब एकचित्त से प्रभू का ध्यान, चिंतन कर।
दर्शन देते प्रभू एक ना एक दिन उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर।

रश्मी कौलवार 
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सीख

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                सीख                      


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शीर्षक - सीख

कविता 3
विषय:-सीख

जिंदगी की पाठशालामें हमें रोज कोई न कोई सीख दे जाता है।
अपने अनुभव, ज्ञान, शिक्षा से हमे  समृद्ध कर जाता है।
माता पिता, परिवार हमे जीने के तरीके सीखाते है।
जीवन पथ पर सही दिशा में चलना सीखाते है।

गुरु हमे अक्षर ज्ञान देकर जीवनपथ पर प्रगती करना सीखाते है।
दोस्त तो जिंदगी के हर रंग में रंगना सीखाते है।
मनुष्य ही नहीं पशु, पक्षी, सृष्टी भी हमे सीख देती हैं।
जीवन का सारा सार हमे अपने आचरण से समझाते हैं।

चींटी कभी हार नहीं मानती, बार बार गिरकर उठ़ जाती हैं।
आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास का पाठ़ सीखाती है।
रंगबिरंगी तितली अपने धून में मस्त होकर मधुर रस का पान करती हैं।
अच्छे गुणों का आकलन, सदैव खुश रहना सीखाती है।

बगुला एकाग्रता से शिकार कर धैर्य, संयम का पाठ़ पढ़ाता हैं।
बाज़ जैसी तेज़ नजर रखोंगे तो, लक्ष्य जरूर प्राप्त होता हैं।
नदी, पर्वत, वृक्ष, निस्वार्थ भाव से सेवा देकर, परोपकार की सीख देते है।
ये चाँद सुरज हमे सही वक्तपर, कड़ी मेहनत करने की सीख देते है।

हर कोई किसीं न किसीं रूप में, कही ना कही हमे सीख देता है।
जीनसे हमें जीवन का सच्चा मोल समझ में आता हैं।
 
रश्मी कौलवार
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सुख और आनंद में सूक्ष्म अंतर

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शीर्षक - सुख और आनंद में सूक्ष्म अंतर


कविता 2
विषय:- सुख और आनंद में सूक्ष्म अंतर

समझ ले बंदे, सुख और आनंद में बड़ा सूक्ष्म हैं अंतर।
गलतफ़हमी इंसान की इस्तेमाल करता पर्याय समझकर।

सुख हमेशा किसीं व्यक्ती या वस्तू पे होता निर्भर।
आनंद तो हमारी प्रकृती झाँक ले जरा मन के भीतर।

आनंद में सुखानुभूती होती, पर सुख में नहीं मिलता आनंद।
आनंद का संबंध आत्मा से, सुख का संबंध शरीर के अंदर।

मनुष्य का आनंद अक्षय, अनंतकाली, शाश्वत। 
पर मनुष्य का हर सुख अल्पकाली, अस्थायी, क्षणिक।

आनंद से और आनंद हैं मिलता, सुख के बाद दुख आता अक्सर।
आनंद और सुख बांट़कर, स्वर्ग का अनुभव मिलता इसी धरापर।

"सत्, चित्, आनंद" स्वरूप हैं तेरा, देख जरा ज्ञान चक्षू खोलकर।
मत दौड़ क्षणिक सुख के पिछे, आनंद तो तेरे हृदय के भीतर।

रश्मी कौलवार
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बेटियाँ पराया धन

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शीर्षक - बेटियाँ पराया धन



 कविता 1
विषय:- बेटियाँ पराया धन
भगवान की असीम कृपा का फल।
जीस घर में पड़ते लक्ष्मी के कदम।
फिर क्यों कहें बेटियाँ पराया धन?

सौभाग्य माँ बाप का जहाँ लेती बेटी जनम।
जरूर पिछले जनम के कोई पुण्य करम।
फिर क्यों कहें बेटियाँ पराया धन?

परिवार के दुख से उद्विग्न होता जीसका मन।
अपनी खुशबू से महकाती बाबूल का आंगण।
फिर क्यों कहें बेटियाँ पराया धन?

पिता कन्यादान करके पाता है उत्तम फल।
बेटी ही जोडती दोनो घर के बीच कुलसंबंध।
फिर क्यों कहें बेटियाँ पराया धन?

विदा करके पिता अपना फ़र्ज निभाता।
बेटी दुसरा घर सजाकर कर्ज चुकाती।
फिर क्यों कहें बेटियाँ पराया धन?

रश्मी कौलवार.
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जिंदगी औरत की

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            जिंदगी औरत की         


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शीर्षक - जिंदगी औरत की


शीर्षक : जिंदगी औरत की
विधा।  :     कविता

जिंदगी औरत की जैसे तूफानों में फँसी किश्ती 
पहले जन्म के लिए संघर्ष फिर अस्तित्व की जंग लड़ती 

दूसरे घर जाना,बचपन से एक ही घुट्टी पी बड़ी होती 
दूसरे घर में भी पराई रहती लोलक सी झूलती रहती

सबकी सुनती-सोचती उसकी सुनने वाला कोई नहीं 
माँ-बीबी-बेटी-बहू हैं नाम,अपनी पहचान कुछ नहीं 

चाँद के सोने के बाद सोती,सूरज के उठने से पहले जगती
कभी ज़रा वो देर तक सो जाए पूरे घर में अफरातफरी मचती 

औरत की  जिंदगी की खलनायक इक औरत होती
 अपनी बेटी के लिए हाय तौबा बहू के लिए गड्ढे खोदती  

कामकाजी महिलाओं की जिंदगी तो दोधारी तलवार समान
काम करके जाती आते काम में जुटती रस्ते से भाजी खरीदती आती

बच्चों की पढ़ाई-ट्यूशन की पूरी जिम्मेदारी उसपर होती 
चूक करें बच्चें पर जवाबदारी औरत की होती 

 जिंदगी औरत की हमेशा ही  डर-हवस के साए में रहती
बाहर भेड़िए घूम ही रहे अपनों में भी रंगे सियार कम नहीं

जिंदगी औरत की आजकल समाचार की सुर्खियाँ बन गईं
 जिंदगी रही कहाँ मौत के साए में साँस लेने को विवश हो गई

Writer : Ritu Vemuri




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क्या तेरा जाना जरुरी था

                  क्या तेरा जाना जरुरी था  बचपन तू मुझे अकेला कर गया,क्या तेरा जाना जरुरी था। यदि हाँ तो साथ ले चलता,क्या मुझे पीछे छोड़ना जर...