मुखौटा

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                मुखौटा                     


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शीर्षक - मुखौटा



विधा: छंदमुक्त कविता



सब लोग इस संसार में, चेहरों पर मुखौटे पहने हुए हैं।

सब लोग यहाँ अपनी-अपनी, असलियत को ढक लिए हैं।


चेहरों पर मुखौटे पहने, लगा रहें हैं ज़िन्दगी की दौड़।

कामयाबी के जंग में आगे आने की, लगी है सबमें होड़।


शाश्वत जीवन में इस जग की, सच से सब हैरान हैं।

जो जैसा दिखता होता नहीं, इस सच से अंजान हैं।।


कुछ और दिखाता है खुद को, पर असल में होता कुछ और है।

हम होते हैं किसी और मोड़ पर, पर हमारा ठौर कहीं और है।


क्या सच है क्या सच नहीं, यह तो दुनिया की माया है।

होता है क्या दिखता है क्या, यह तो उसकी काया है।


कहीं सच है कहीं झूठ गज़ब, यहाँ तो अद्भूत उजाला है।

मुखौटे पहने बैठें इंसान, यह संसार ही निराला है।


बड़े अनोखे रूप इसके, नित नए रूप दिखलातें हैं।

इन्हें पहचानने में हमसे, भूल कभी भी हो जातें हैं।


कैसे पहचान पाए इनको, जहाँ चहुँ ओर कहीं उजियारा है।

स्वयं में विश्वास रख, यह मुखौटा पहने जग सारा है।



स्वरचित मौलिक कविता

-इन्दु साहू,

रायगढ़ (छत्तीसगढ़)




कविता/ bloomkosh


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