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शीर्षक - स्वार्थ से परमार्थ तक का सफर
कविता 4
विषय:- स्वार्थ से परमार्थ तक का सफर
हर मनुष्य के लिए आसान नही हैं, ये स्वार्थ से परमार्थ तक का सफर।
जन्म से ही स्वयं के बारे में सोचने की, आदत लगी हैं उसे इस कदर।
पहले अपना विचार करके ही, फिर वो परोपकार करता सोच समझकर।
मनुष्य जीता होकर स्वार्थी माया, मोह, ममता, आशा की पट्टी बांधकर।
परमार्थ शूरु होता, जब वो जीता दुसरों के लिए मोह, माया को त्याग कर।
अंतशक्ती जलाता काम, क्रोध, लोभ, मोह की तृष्णा को भस्म कर।
परमार्थ में प्रभू भक्ति, विवेक की ज्योती से जब जीता विरक्त होकर।
अपना अभिमान त्यागकर, कर्म भी करता सारे फल की आशा छोड़कर।
इंद्रियों को वश में करके, जब एकचित्त से प्रभू का ध्यान, चिंतन कर।
दर्शन देते प्रभू एक ना एक दिन उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर।
रश्मी कौलवार
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