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अजीब दुनिया
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शीर्षक -
कितनी अजीब है यह दुनिया,
और इस दुनिया के रंग,
है कुछ ऐसे भी जो दूर रहकर भी पास है,
और है कुछ बहुत दूर, रहकर भी संग।
कोई सच्चे साथी के लिए तड़पता,
तो कोई पास होने पर भी परवाह नहीं करता।
जैसे कोई तपते रेगिस्तान में पानी की बूँद को तलाशता,
तो कोई सागर में भी प्यासा खुद को पाता।
जैसे कोई मीन बाढ़ के साथ मरूस्थल में आ जाए,
और उसी को तालाब समझ वहीं रुक जाए,
जब हो उसका असलियत से सामना,
तो उसके पैरों तले जमीन खिसक जाए।
तड़पती, इधर-उधर भटकती वह मात्र एक तालाब के लिए,
क्या इसी के लिए थे उसने सागर छोड़ दिए?
हिम्मत नहीं हारी उसने, आख़री दम तक करती रही प्रयास,
कुछ दूरी पर पानी देखकर बंधी थी उसे आस।
पर यह क्या? दिल उसका सहम गया,
मृग मरीचिका देखकर जीवन भी उसका थम गया।
खुश्बु ढूंढती जरिया और जरिया तलाशता मंज़िल,
सभी एक के पीछे एक, नहीं किसी को भी कुछ हासिल।
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